शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

मुखौटा

जवानी के पूर्वार्द्ध में दोनों मिले। दोनों अपनी-अपनी विधा के विशेषज्ञ थे। वे एक दूसरे की विधा की भी अच्छी समझ रखते थे और गाहे-बेगाहे एक दूसरे के कामों में उपयोगी सुझाव भी देते थे। धीरे-धीरे वे अपने-अपने कामों में एक दूसरे को महसूस करने लगे और बीतते समय के साथ वे एक दूसरे के कामों का केिन्द्रय चरित्र बन कर उभरने लगे। फलत: उनकी अपनी-अपनी विधा के कई बिम्ब टूटे और कुछ नयी परिभाषायें बनीं। वे मशहूर भी होने लगे उनके कामों की चर्चा भी होने लगी। प्रेम की चरम पराकाष्ठा पर उन दोनों ने शादी कर ली। शादी के बाद उन दोनों ने अपने अंदर और अधिक स्फुर्ति एवं उर्जा महसूस किया। वे नये उत्साह से अपने-अपने कामों में लग गये नयी ऊंचाइया¡ हासिल करने के लिए।

पहली सालगिरह के कुछ दिन पूर्व लड़के ने महसूस किया कि बहुत दिन हो गये अपनी पत्नी को कोई उपहार दिये हुए। लड़की चित्रकार थी उसने एक पेंटिंग बनाई और शीर्षक दिया `स्पंदन´। लड़का कवि था उसने एक कविता लिखी। संयोग से उसने भी शीर्षक दिया `स्पंदन´। रात को जब वे सोने गये तो दोनों ने अपने-अपने चेहरे पर मुखौटा से निजात के बारे में सोचते रहे। सुबह उन दोनों से तब राहत की सांस ली जब उनको यह ज्ञात हुआ कि अगला उनके मुखौटे से अनभिज्ञ है। वह उनके शादी के सालगिरह का दिन था। उस दिन उन दोनों से एक दूसरे से खूब बाते की, दुनिया जहान की बातें। उस दिन उनकी सारी बातों में हम था। मैं नहीं। शाम को जब दोनों ने केक काटा एवं एक दूसरे को अपनी कृति उपहार दी तो वास्तव में उनके हृदय के स्पंदन की लय एक ही थी। उन दोनों की खुशी तब अपने चरम पर पहुंच गयी जब उन दोनों ने अपने-अपने चेहरे को टटोला और मुखौटा गायब मिला। अगले दिन वे फिर से अपने-अपने कामों में मशगूल हो गये। उस रात फिर से उनके चेहरे पर मुखौटा था।